MHI- 01 प्राचीन एवं मध्ययुगीन समाज ( Prachin evm madhyayugin samaaj ) || History Most important question answer

mhi- 01- Prachin evm madhyayugin samaaj- history most important question answer.

प्रिय विद्यार्थियों इस वाले Article में हम आपको बताने वाले हैं MHI- 01 प्राचीन एवं मध्ययुगीन समाज  ( Prachin evm madhyayugin samaaj ) History इसमें आपको सभी important question- answer देखने को मिलेंगे इन question- answer को हमने बहुत सारे Previous year के  Question- paper का Solution करके आपके सामने रखा है  जो कि बार-बार Repeat होते हैं, आपके आने वाले Exam में इन प्रश्न की आने की संभावना हो सकती है  इसलिए आपके Exam की तैयारी के लिए यह प्रश्न उत्तर अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे। आपको आने वाले समय में इन प्रश्न उत्तर से संबंधित Video भी देखने को मिलेगी हमारे youtube चैनल Eklavya ignou पर, आप चाहे तो उसे भी देख सकते हैं बेहतर तैयारी के लिए



1. विश्व के विभिन्न क्षेत्रों मे कृषि की शुरुआत का विश्लेषण कीजिए | (20)

उत्तर  कृषि विश्व भर में एक महत्वपूर्ण गतिविधि है जिसकी शुरुआत मानव सभ्यता के विकास की एक महत्वपूर्ण पहलु रही है। कृषि की शुरुआत विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समयों पर हुई है और इसका विकास समय के साथ हुआ है। निम्नलिखित विभागों में विश्लेषण किया गया है

( दक्षिण पश्चिम एशिया )

इराक, सीरिया और तुर्की जैसे आधुनिक देशों को शामिल करने वाले उपजाऊ क्रीसेंट को कृषि का उद्गम स्थल माना जाता है। लगभग 10,000 से 12,000 साल पहले, इस क्षेत्र में शुरुआती मनुष्यों ने शिकारी-संग्रहकर्ता जीवनशैली से बसे हुए कृषक समुदायों में संक्रमण शुरू किया था। उन्होंने गेहूं, जौ, मसूर और मटर जैसी फसलों के साथ-साथ बकरी, भेड़ और मवेशी जैसे जानवरों को भी पालतू बनाया। जंगली अनाज की उपलब्धता, अनुकूल जलवायु और विभिन्न प्रकार के पौधों और जानवरों तक पहुंच ने कृषि के उद्भव में योगदान दिया।

 

नील घाटी (मिस्र):

नील घाटी में कृषि का पता लगभग 5,000 ईसा पूर्व से लगाया जा सकता है। नील नदी ने खेती के लिए पूर्वानुमानित जल स्रोत और उपजाऊ मिट्टी प्रदान की। प्राचीन मिस्रवासी मिट्टी को समृद्ध करने के लिए नील नदी की वार्षिक बाढ़ का उपयोग करके बाढ़ के मैदान में खेती करते थे। वे गेहूं, जौ, सन जैसी फसलें और खजूर और अंजीर जैसे फल उगाते थे। प्राचीन मिस्रवासियों ने कृषि उत्पादकता को अधिकतम करने के लिए उन्नत सिंचाई तकनीकें भी विकसित कीं।

सिंधु घाटी सभ्यता (दक्षिण एशिया):

सिंधु घाटी सभ्यता, जो वर्तमान पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत में लगभग 2600-1900 ईसा पूर्व पनपी थी, में एक परिष्कृत कृषि प्रणाली थी। उन्होंने सिंचाई के लिए नहरों और जलाशयों के व्यापक नेटवर्क का उपयोग किया। इस क्षेत्र में गेहूँ, जौ, चावल और कपास की खेती की जाती थी। सिंधु घाटी के लोग भी फसल चक्र अपनाते थे और उन्हें कृषि पद्धतियों की व्यापक समझ थी।

चीन :

चीन में पीली नदी (हुआंग हे) बेसिन में कृषि 9,000 वर्ष से भी अधिक पुरानी है। क्षेत्र की समृद्ध मिट्टी, अनुकूल जलवायु और पानी की उपलब्धता से बाजरा, गेहूं, सोयाबीन और चावल जैसी फसलों की खेती संभव हो सकी। चीनियों ने सिंचाई तकनीक, सीढ़ीदार खेती विकसित की और जानवरों द्वारा खींचे जाने वाले हलों का उपयोग शुरू किया। चावल की खेती, विशेषकर दक्षिणी चीन में, ने कृषि पद्धतियों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

मेसोअमेरिका (मध्य अमेरिका और मेक्सिको):

मेसोअमेरिका में कृषि लगभग 7,000 से 5,000 ईसा पूर्व शुरू हुई। सेम, स्क्वैश और मिर्च के साथ मक्का (मकई) मुख्य फसल थी। प्राचीन माया, एज़्टेक और अन्य स्वदेशी संस्कृतियों ने परिष्कृत कृषि प्रणालियाँ विकसित कीं, जिनमें सीढ़ीदार खेतों, सिंचाई और चिनमपास (झीलों में खेती के लिए कृत्रिम द्वीप) का उपयोग शामिल था। इन सभ्यताओं में अमरंथ, टमाटर और कोको जैसी अन्य फसलें भी उगाई जाती थीं।

एंडियन क्षेत्र (दक्षिण अमेरिका):

पेरू, बोलीविया और इक्वाडोर के वर्तमान देशों सहित एंडियन क्षेत्र में लगभग 9,000 साल पहले कृषि का उदय हुआ था। आलू, क्विनोआ, मक्का, सेम, और ओका और उलुको जैसे विभिन्न कंदों की खेती प्रचलित हो गई। इस क्षेत्र में इंकास और पहले की सभ्यताओं ने सीढ़ीदार निर्माण, सिंचाई प्रणाली और उर्वरक के रूप में गुआनो (पक्षियों के मल) का उपयोग जैसी नवीन कृषि तकनीकों का विकास किया।

निष्कर्ष : अतः इस प्रकार से विश्व के अनेक स्थानों पर अलग अलग समय मे कृषि का विकास देखने को मिला |


2. कांस्य युगीन समाजों की सामाजिक संरचना की चर्चा कीजिए| (20)

कांस्य युग के समाज, जो 3000 ईसा पूर्व के आसपास उभरे और लगभग 1200 ईसा पूर्व तक चले, प्रौद्योगिकी, अर्थव्यवस्था और सामाजिक संगठन में महत्वपूर्ण प्रगति की विशेषता थी।  

वर्ग विभाजन: कांस्य युग के समाज आमतौर पर स्पष्ट सामाजिक स्तरीकरण और विशिष्ट सामाजिक वर्गों के साथ पदानुक्रमित थे। सामाजिक पिरामिड के शीर्ष पर शासक या राजा थे, जिन्हें अक्सर दैवीय या अर्ध-दिव्य व्यक्ति माना जाता था, जिनके पास राजनीतिक और धार्मिक अधिकार थे। उन्हें आम तौर पर सत्ता, धन और विशेषाधिकार रखने वाले कुलीन वर्ग का समर्थन प्राप्त था। अभिजात वर्ग के नीचे आम लोग थे, जो आबादी का बहुमत थे और खेती, पशुपालन, शिल्प कौशल और व्यापार जैसे विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए थे।

 

शहरी केंद्र : कांस्य युग के दौरान, शहरों का महत्व बढ़ गया। शहरी केंद्र राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में कार्य करते थे, जो अक्सर शहर-राज्यों का केंद्र बनते थे। ये शहर-राज्य स्वतंत्र राजनीतिक संस्थाएँ थे, जिनकी अपनी सरकारें, कानून और सैन्य बल थे। वे पड़ोसी शहर-राज्यों के साथ व्यापार और राजनयिक संबंधों में लगे हुए थे, कभी-कभी गठबंधन बनाते थे या संघर्ष में शामिल होते थे।

कृषि श्रम: कांस्य युग के समाजों में कृषि ने एक केंद्रीय भूमिका निभाई, और अधिकांश लोग खेती और पशुपालन गतिविधियों में लगे हुए थे। भूमि स्वामित्व शासक अभिजात वर्ग के हाथों में केंद्रित था, जो अक्सर कृषि संसाधनों को नियंत्रित करते थे |

शिल्पकार और कारीगर: कांस्य युग के समाजों में शिल्पकारों और कारीगरों का महत्वपूर्ण स्थान था। वे विभिन्न शिल्पों, जैसे धातुकर्म, मिट्टी के बर्तन, बुनाई और लकड़ी के काम में कुशल थे। उनके उत्पादों को अत्यधिक महत्व दिया जाता था और व्यापार नेटवर्क के माध्यम से उनका आदान-प्रदान किया जाता था। शिल्पकार अक्सर उत्पादन को विनियमित करने, मानक निर्धारित करने और अपने हितों की रक्षा के लिए गिल्ड या संघ बनाते थे।

गुलामी और श्रम बल: कांस्य युग के समाजों में गुलामी प्रचलित थी, गुलाम आमतौर पर युद्ध, व्यापार या ऋण बंधन के परिणामस्वरूप प्राप्त होते थे। दासों ने कृषि श्रम, घरेलू सेवा और कुशल शिल्प कौशल सहित कई कार्य किए। उन्हें संपत्ति माना जाता था और उनमें सामाजिक और कानूनी अधिकारों का अभाव था।

 

धर्म और अनुष्ठान: कांस्य युग के समाजों में धर्म ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और धार्मिक विश्वास अक्सर राजनीतिक शक्ति के साथ जुड़े हुए थे। शासकों और अभिजात वर्ग ने दैवीय संबंधों का दावा किया, और देवताओं को प्रसन्न करने और समुदाय की भलाई सुनिश्चित करने के लिए धार्मिक समारोह और अनुष्ठान आयोजित किए गए। मंदिर और धार्मिक संस्थान शक्ति और धन के केंद्र थे, और पुजारियों का काफी प्रभाव था।

निष्कर्ष :- अतः इस प्रकार हमने की किस प्रकार से कांस्य युगीन समाज की सामाजिक संरचना थी तथा उसके प्रमुख लक्षणों पर चर्चा की |


3. पशुचारण खानाबदोशी से आप क्या समझते हैं ? विभिन्न क्षेत्रों मे इसके प्रसार का संक्षिप्त विवरण दीजिए | (20)

पशुचारण खानाबदोशी का इतिहास हजारों साल पुराना है और यह दुनिया भर के विभिन्न क्षेत्रों में मानव अस्तित्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। यहां इसके इतिहास का संक्षिप्त विवरण दिया गया है:

उत्पत्ति:

पशुचारण खानाबदोशी का उदय जानवरों को पालतू बनाने के साथ-साथ हुआ, जो लगभग 10,000 ईसा पूर्व शुरू हुआ। जैसे-जैसे मनुष्य ने शिकार और संग्रहण से स्थायी कृषि की ओर संक्रमण किया, कुछ समूहों ने पशुपालन के लाभों को पहचाना और भेड़, बकरी, मवेशी और ऊंट जैसे जानवरों को पालतू बनाना शुरू कर दिया।  

 

प्राचीन मेसोपोटामिया:

पशुचारण खानाबदोशी के सबसे पुराने  उदाहरणों में से एक का पता लगभग 3000 ईसा पूर्व प्राचीन मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक) में लगाया जा सकता है। इस क्षेत्र के चरवाहे अपनी आजीविका के लिए भेड़ और बकरियों पर निर्भर थे और मौसमी तौर पर चरागाह भूमि और जल स्रोतों की तलाश में चले जाते थे।  

मध्य एशिया:

पशुचारण खानाबदोशी की जड़ें मध्य एशिया के इतिहास में गहरी हैं, विशेषकर मैदानों और घास के मैदानों में। सीथियन, मंगोल, हूण और अन्य मध्य एशियाई समूहों की खानाबदोश जीवनशैली ने क्षेत्र के इतिहास को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये खानाबदोश समाज अपने घुड़सवार योद्धाओं, व्यापक व्यापार नेटवर्क और अपने रहने वाले विशाल और कठोर वातावरण के अनुकूल होने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध थे।

मध्य पूर्व और उत्तरी अफ़्रिका:

मध्य पूर्व और उत्तरी अफ़्रीका में पशुचारण खानाबदोशी का एक लंबा इतिहास रहा है।  ये खानाबदोश समूह जीवित रहने के लिए ऊंटों, बकरियों और भेड़ों पर निर्भर होकर शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में चले गए।  

उप सहारा अफ्रीका:

उप-सहारा अफ्रीका के विभिन्न हिस्सों में पशुचारण खानाबदोशी का अभ्यास किया गया है। उदाहरण के लिए, पूर्वी अफ़्रीका के मासाई लोगों की एक समृद्ध खानाबदोश परंपरा है, जो मवेशी चराने और मौसमी प्रवासन पर आधारित है। वे ऐतिहासिक रूप से जलवायु और संसाधन उपलब्धता में बदलाव के अनुरूप अपने झुंडों को घास के मैदानों में स्थानांतरित करते रहे हैं।  

आधुनिक चुनौतियाँ:

हाल की शताब्दियों में, राष्ट्र-राज्यों के प्रसार, उपनिवेशीकरण और औद्योगीकरण ने  पशुचारण खानाबदोशी के लिए चुनौतियाँ पेश की हैं। निश्चित सीमाओं की स्थापना और निजी भूमि स्वामित्व ने   मार्गों को बाधित कर दिया  आधुनिकीकरण, शहरीकरण और बदलती आर्थिक प्रणालियों के कारण भी कई क्षेत्रों में पशुचारण खानाबदोशी में गिरावट आई है |

निष्कर्ष :-  हालाँकि कुछ क्षेत्रों में पशुचारण खानाबदोशी जारी है, लेकिन इसका    प्रसार कम हो गया है। हालाँकि, दुनिया भर के कई खानाबदोश समुदायों की पहचान और परंपराओं के लिए आवश्यक है |


4. रोमन समाज मे पैट्रिशियन्स (अभिजात वर्ग) और प्लेबियन्स (जनसाधारण) के मध्य हुए संघर्ष पर एक टिप्पणी लिखिए | (20)

उत्तर - भूमिका :-

आरंभिक गणतंत्र का इतिहास भूमिपति अभिजात वर्ग और आम जनता के बीच लगातार होने वाले संघर्षों से भरा पड़ा है। एक ओर जहां पैट्रिशियन समस्त राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में लेने का प्रयास कर रहे थे वहीं प्लेबियनों अपनी मौजूदगी का एहसास कराने के लिए निरंतर दबाव बनाए हुए थे और मांग कर रहे थे कि राजनीतिक प्रक्रिया में उनकी भी भागीदारी होनी चाहिए। गणतंत्र की स्थापना के बाद पैट्रिशियनों ने जो व्यवस्था बनाई उसमें उन्होंने सरकार में प्लेबियनों को कोई जगह नहीं दी। यह स्पष्ट था कि कृषक वर्ग की आसानी से उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। रोमन अभिजात वर्ग को शहर की रक्षा के लिए और फिर इटली में प्रसार और विस्तार के लिए कृषक वर्ग की सहायता की नितांत आवश्यकता थी। रोमन सैन्य संगठन पूरी तरह कृषकों पर ही आश्रित था जो सैन्य बल की प्रमुख शक्ति थे | सेना मे सैनिक अधिकतर कृषक वर्ग से ही नियुक्त किए जाते थे |  

उन्हें कोई वेतन भी नहीं दिया जाता था सैनिकों को अपने अस्त्र-शस्त्र खुद जुटाने पढ़ते थे सभी स्वस्थ पुरुषों को सेना में भर्ती होना पड़ता था जैसे-जैसे रूम की सीमाओं का विस्तार होने लगा कृषक सैनिकों के समर्थन की आवश्यकता भी बढ़ती चली गई इस विस्तार से आरंभ में कृषक वर्ग को थोड़ा बहुत लाभ मिला परंतु सबसे ज्यादा लाभ साम्राज्य के अभिजात वर्ग को हुआ।

रोमन सैन्य ढांचे में प्लेबियनों की भूमिका को देखते हुए यह बात आसानी से कही जा सकती है कि वे अपनी मांगों के लिए संघर्ष करने के लिए अपने को आसानी से संगठित कर सकते थे। रोम शहर की राजनीतिक व्यवस्था में एक कबीलाई सभा थी जो राजतंत्र के समय से ही अस्तित्व में थी। रोम के मूल कबीलों के वयस्क पुरुष इस सभा के सदस्य थे।

कोमिशिया क्यूरियाटा

रोमन सभा यानी सभी नागरिकों की सभा को कोमिशिया क्यूरियाटा के नाम से जाना जाता था। पैट्रिशियनों के सत्ता में आने और कुलीनतंत्रीय राज्य की स्थापना के साथ ही कोमिशिया क्यूरियाटा कमोबेश अपंग हो गया। औपचारिक रूप से इसकी मौजूदगी तो बनी रही पर इसके पास कोई ताकत न रही।

कोमिशिया क्यूरियाटा वंशीय संबंधों पर आधारित सामाजिक इकाइयां थीं जिन्हें क्यूरिए (एक वचन क्यूरिया) कहा जाता था। रोम के मूल निवासी इस क्यूरिया नामक सामाजिक इकाई में विभाजित थे। क्यूरिए एक ऐसा कुल था जिसमें पैट्रिशियन और प्लेबियन दोनों शामिल थे। जैसा कि हमें मालूम है आरंभिक गणतंत्र के दौरान रोम में तीस क्यूरिए थे। ये तीन कबीलों में बंटे हुए थे। प्रत्येक कबीले में दस क्यूरिए थे। पैट्रिशियन अपने मन मुताबिक सभा अध्यक्षों का चयन कर कोमिशिया क्यूरियाटा की कार्यवाही को नियंत्रित कर लेते थे। सभा में एक सदस्य एक मत के सिद्धांत पर मतदान नहीं किया जाता था। प्रत्येक क्यूरिया सामूहिक रूप से मत देता था ताकि एक क्यूरिया का विचार एक साथ अभिव्यक्त हो। पैट्रिशियन वर्ग कुलीय संबंधों का उपयोग करते हुए अपने-अपने क्यूरिए के विचारों को प्रभावित करते थे। वे समस्त क्यूरिया का प्रतिनिधित्व करते थे और अपनी बात सामने रखते थे। इस प्रकार आम नागरिक मूक दर्शक बने रहे। धीरे-धीरे अधिकांश सदस्यों की भागीदारी इतनी अप्रासंगिक हो गई कि सभा के इनके सत्रों में विचार-विमर्श करने तथा मतदान देने के लिए प्रत्येक क्यूरिया से एक आधिकारिक प्रतिनिधि भेजा जाने लगा।

कोमिशिया क्यूरियाटा की असमानता पर आधारित संरचना को देखते हुए इससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि यह सभा प्लेबियनों के हितों को पूरा करेगी। प्लेबियनों के बढ़ते दबाव के परिणामस्वरूप नई सभा बनाने के लिए नागरिकों को एक बार फिर से अलग-अलग समूहों में बाटा गया।

कोमिशिया सेंच्युरियाटा 

इस नई सभा को कोमिशिया सेंच्युरियाटा कहा गया। कोमिशिया क्यूरियाटा की तरह ही कोमिशिया सेंच्युरियाटा भी सभी रोमन नागरिकों (पैट्रिशियनों और प्लेबियनों) की सभा थी। इन दोनों सभाओं में मुख्य अन्तर यह था कि इनमें नागरिकों के समूह अलग-अलग ढंग से गठित किए गए थे। कोमिशिया सेंच्युरियाटा में नागरिकों को सेंचुरिज' सौ की संख्या (100) में गोलबंद किया गया था। सेंचुरी रोम की सेना सबसे छोटी इकाई थी और अपने नाम के अनुरूप हरेक इकाई में 100 सदस्यों की भरती की गुंजाइश थी।

परंतु व्यवहार में ये संख्याएं अलग-अलग होती थीं। आरंभ में कोमिशिया सेंच्युरियाटा बिलकुल एक सैन्य संगठन लगती थी। सेंचुरिज की संख्या कुल मिलाकर 193 थी। इन 193 सेंचुरिज को पांच वर्गों में बांटा गया था। इन्हें सम्पत्ति के स्वामित्व के आधार पर विभाजित किया गया था। 193 सेंचुरिज को पांच वर्गों में विभाजित किया गया था परंतु इनका विभाजन समान नहीं था। अधिकांश सेंचुरिज पहले तीन वर्गों में रखे गए थे जिसमें अभिजात वर्ग और बड़े भूमिपतियों को रखा गया था। कोमिशिया संच्यूरियाटा में सेंचुरी एक प्रतीकात्मक इकाई थी।

कांस्ययुगी प्रत्येक सेंचुरी में नागरिकों की संख्या एक समान नहीं थी । सेंचुरी के पहले दो वर्गों में कम नागरिक शामिल थे। दूसरी ओर गरीब नागरिक थे। इन नागरिकों को प्रोलेटरी  कहा जाता था।

 प्रोलेटरी सबसे निचला वर्ग था। यह वर्ग, हालांकि संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा था, परंतु उसे केवल एक सेंचुरी प्रदान की गई थी। इस प्रकार के वर्गीकरण से गरीब नागरिकों का सभा में भागीदारी का कोई अर्थ नहीं रह जाता था। कोमिशिया सेंच्युरियाटा में प्रत्येक सेंचुरी के आधार पर वोट का निर्धारण किया गया था न कि एक व्यक्ति एक मत के सिद्धांत के आधार पर (प्रत्येक सेंचुरी का एक मत होता था)। इस प्रकार अभिजात वर्ग और बड़े भूमिपतियों के पास, अल्पसंख्यक होने के बावजूद अधिक मत थे। सभा की कार्यवाही और कामकाज पर पैट्रिशियन का कड़ा नियंत्रण था।

कोनिशिया सेंच्युरियाटा की स्थापना संभवतः 450 ई. पू. के आसपास हुई (या इसी समय यह महत्वपूर्ण बना)। जबतक गणतंत्र कायम रहा तबतक अधिकांशतः यह नागरिकों की सभा बनी रही। कोमिशिया सेंच्युरियाटा ही कॉन्सलों और सेन्सर्स का चुनाव करवाती थी और सारे कानून यहीं से पारित किए जाते थे। युद्ध और शांति की घोषणा भी इस सभा का विशेष अधिकार था। कोमिशिया क्यूरियाटा अब केवल सामाजिक और धार्मिक प्रकृति के कुछ मामलों की ही देखरेख किया करती थी।

कौंसिलियम प्लेबिस

एक ओर जहां कोमिशिया क्यूरियाटा और कोमिशिया सेंच्युरियाटा सभी रोमन नागरिकों की सभा थी वहीं एक सभा ऐसी भी थी जहां केवल प्लेबियन ही शामिल हो सकते थे। इस प्लेबियन सभा को कौंसिलियम प्लेबिस कहा गया। कौंसिलियम प्लेबिस में प्लेबियनों की समस्याओं पर विचार विमर्श होता था। जल्द ही यह प्लेबियन सभा संस्थाकृत हो गई और इसने अपना ढांचा खुद निर्मित किया । इसने अपनी कार्य पद्धति तय की; इसके अपने अधिकारी चुने जाते थे । 494 ई. पू. में प्लेबियनों ने दो अधिकारियों का चयन किया और रोमन राज्य पर दबाव डाला कि इन्हें कौंसिलिसम प्लेबिस का अधिकारिक प्रतिनिधि माना जाए। राज्य द्वारा अधिकारिक रूप से इसे स्वीकार कर लिया गया। इन अधिकारियों को ट्रिब्यून्स कहा जाता था, जो प्लेबियनों के प्रवक्ता होते थे।

ट्रिब्यून्स के उत्तरदायित्व लगातार बढ़ते चले गए। इस कारण इन आधिकारियों की संख्या भी बढ़ती गई। 48, ई. पू. तक दस ट्रिब्यून कार्यरत था । कौंसिलियम प्लेबिस हर वर्ष इन ट्रिब्यून्स का चुनाव किया करता था । अमीर प्लेबियनों के लिए इस पद को प्राप्त करने के लिए काफी होड़ थी |

पैट्रिशियन्स (अभिजात वर्ग) और प्लेबियन्स (जनसाधारण) के मध्य टकराव

प्राचीन रोम के परम्परागत काल विभाजन में दो शताब्दियों या 510 से 287 ई. पू. के बीच के काल को 'श्रेणियों के टकराव (पैट्रिशियनों और प्लेबियनों) के रूप में जिक्र किया जाता है। 494 ई. पू. में ट्रिब्यून्स को दी गई मान्यता इस संघर्ष का पहला महत्वपूर्ण चरण था। इसके बाद प्लेबियनों के संघर्षों में चार और प्रमुख और महत्वपूर्ण पड़ाव आए 

  • प्लेबियन सबसे पहले अपनी इस मांग पर जोर दे रहे थे कि कानून संहिता लिखित होनी चाहिए ताकि न्यायिक प्राधिकरण द्वारा मनमाने ढंग से इसका उपयोग न किया जा सके सके। लिखित कानून न होने के कारण पैट्रिशियन न्यायिक अधिकारों का मनमाने ढंग से उपयोग किया करते थे । प्लेबियनों ने सीनेट को यह धमकी दी कि यदि रोमन राज्य का समुचित कानूनी ढांचा न बनाया गया तो वे सेना में भरती होना छोड़ देंगे। सीनेट ने इसके लिए 10 सदस्यीय आयोग बनाया, जिसका अध्यक्ष एप्पिस क्लाडियस   को बनाया गया ।

इस आयोग ने रोमवासियों के लिए कानून बनाए। इस कानून को  कोड ऑफ द ट्वेल्व टेबल्स  कहा जाता है।

 कोमिशिया सेंच्युरियाटा की स्थापना के आसपास ही लगभग 450 ई. पू. में इसकी स्थापना की गई थी। ये  ट्वेल्व टेबल्स  रोमन कानून के आधार बने। दुर्भाग्यवश इन  ट्वेल्व टेबल्स  का पूरा ब्यौरा उपलब्ध नहीं है। इस संहिता के निर्माण से पैट्रिशियनों द्वारा न्यायिक अधिकार के मनमाने उपयोग की संभावना को काफी कम कर दिया।

  • 367 ई. पू. में प्लेबियनों के लिए एक कॉन्सलों का दरवाजा खुल गया। यह दूसरी प्रमुख उपलब्धि थी। कॉन्सलों के पद के लिए प्लेबियन वर्ग के किसी व्यक्ति का वास्तविक चुनाव तो काफी बाद में हुआ । कोमिशिया सेंच्युरियाटा (जिसमें पैट्रिशियन | के मत सबसे ज्यादा थे) कॉन्सलों का चुनाव करते थे और सीनेटर ही इसके लिए उम्मीदवारों का नाम प्रस्तावित किया करते थे। इसलिए रोमन राज्य के उच्चस्थ मजिस्ट्रेट पद के लिए एक प्लेबियन का चुना जाना इतना आसान नहीं था । गणतंत्र के अंतिम 100 वर्षों में ही प्लेबियन नियमित रूप से कॉन्सल के पद पर चुने जाने लगे। ये प्लेबियन कॉन्सल अपने कॉन्सल के पद के कारण सीनेट के सदस्य भी बन सके। इस रास्ते का इस्तेमाल करते हुए प्लेबियन परिवार के कई सीनेटरों ने बाद के गणतंत्र में काफी प्रसिद्धि पाई |
  • 326 ई. पू. में एक और निर्णायक और महत्वपूर्ण सुधार हुआ। रोमन कानून में एक बड़ा भारी दमनात्मक कानूनी प्रावधान था जिसका संबंध औपचारिक अनुबंध या नेक्सम (Nexum) के कड़ाई से पालन करने से जुड़ा था । यदि कोई रोमवासी ऋण लेते समय कोई औपचारिक अनुबंध या नेक्सम करता था, जिसमें कर्ज लेनेवाला व्यक्ति अपने को गिरवी रख देता था और वह समय पर कर्ज नहीं चुका पाता था तो उसे ऋण बंधन में बंधना पड़ता था ।
  • युद्धों में निरंतर भागीदारी के साथ-साथ कई तरह की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए ऋणग्रस्तता किसान की एक जटिल समस्या बन गई थी। जब किसान या अन्य गरीब लोग कर्ज नहीं चुका पाते थे तो उन्हें दास बना लिया जाता था । इस प्रकार बड़े भूमिपति नेक्सम के सहारे
  • आजाद किसानों को गुलाम मजदूर के रूप में परिवर्तित करने लगे। इसलिए नेक्सम का उन्मूलन प्लेबियनों के लिए एक महत्वूपर्ण मुद्दा था। 326 ई. पू. में एक कानून बनाकर ऋण न चुकाए जाने की स्थिति में रोमवासी नागरिकों को गुलाम बनाए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
  • चौथी उपलब्धि राजनीतिक स्तर पर ज्यादा महत्वपूर्ण है और आरंभिक गणतंत्र के दौरान दोनो श्रेणियों के बीच होनेवाले संघर्ष का एक प्रमुख बिन्दु है। 287 ई. पू. में प्लेबियन ट्रिब्यून्स को पूरे तौर पर मजिस्ट्रेट के अधिकार दे दिए गए।
  • जब प्लेबियनों ने सेना में भरती होने से इनकार करने की चेतावनी दी तो इससे संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई। इसी समय दक्षिणी इटली के यूनानी राज्यों पर कब्जा जमाने की योजना बन रही थी। 287 ई. पू. में कौंसिलियम प्लेबिस (प्लेबियन की सभा) के निर्णयों को रोमन राज्य के लिए लागू करना अनिवार्य हो गया। इस प्रकार ट्रिब्यून्स को कौंसिलियम प्लेबिस के निर्णयों को लागू करने का अधिकार मिल गया और इसे रोमन राज्य का पूर्ण अनुमोदन प्राप्त था तथा इसका उल्लंघन करनेवालों को दंड भी दिया जाता था ।
  • इस कानून से कौंसिलियम प्लेबिस की महत्ता बहुत बढ़ गई । इसके निर्णयों को कानूनी अधिकार प्राप्त हो गए। इसके साथ ही साथ ट्रिब्यून्स का पद भी एक शक्तिशाली मजिस्ट्रेट का पद हो गया। 287 ई. पू. की इन घटनाओं से विभिन्न श्रेणियों के बीच होनेवाले संघर्षो के अन्त के रूप में देखा जा सकता है।

निष्कर्ष :-

  • अतः यह सिलसिला की वर्षों तक चला , इसके बाद किसान भूमि सुधार के लिए प्रदर्शन करने लगे परंतु अभिजात वर्ग को भूमि सुधार मंजूर नहीं था | तथा इस प्रकार हमने जाना की कैसे अभिजात वर्ग तथा जनसाधारण के मध्य यह संघर्ष चला |

5. 7वीं शताब्दी मे अरब क्षेत्र मे इस्लामिक राज्य की स्थापना की प्रक्रिया की चर्चा कीजिए |

7वीं शताब्दी के दौरान अरब क्षेत्र में इस्लामी राज्य की स्थापना एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी जिसने मध्य पूर्व और उससे आगे के इतिहास की दिशा को आकार दिया। इस प्रक्रिया को पैगंबर मुहम्मद के जीवन, इस्लाम के विस्तार, खिलाफत की स्थापना और विभिन्न खलीफाओं के तहत उसके बाद के शासन जैसी प्रमुख घटनाओं की जांच करके समझा जा सकता है।

पैगंबर मुहम्मद का जीवन: इस्लामिक राज्य की जड़ें पैगंबर मुहम्मद (570-632 ईस्वी) के जीवन और शिक्षाओं से जुड़ी हैं। मुहम्मद को देवदूत गैब्रियल के माध्यम से ईश्वर से रहस्योद्घाटन प्राप्त हुए, जिन्हें इस्लाम की पवित्र पुस्तक, कुरान में संकलित किया गया। उन्होंने अरब प्रायद्वीप और उसके आसपास अरब जनजातियों के बीच एकेश्वरवाद और ईश्वर की इच्छा (इस्लाम) के प्रति समर्पण का प्रचार किया।

इस्लाम का विस्तार: मुहम्मद के नेतृत्व में, इस्लाम ने मक्का में महत्वपूर्ण लोकप्रियता हासिल की। हालाँकि, शासक अभिजात वर्ग के उत्पीड़न के कारण, मुहम्मद और उनके अनुयायी 622 ईस्वी में मदीना शहर में चले गए। यह घटना, जिसे हिजरा के नाम से जाना जाता है, ने इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत को चिह्नित किया और पहले मुस्लिम समुदाय की स्थापना की। समय के साथ, मुहम्मद की शिक्षाएँ फैल गईं और अरब प्रायद्वीप में कई जनजातियों ने इस्लाम अपना लिया।

शक्ति का सुदृढ़ीकरण: कई सैन्य अभियानों के बाद, पैगंबर मुहम्मद और उनके अनुयायी इस क्षेत्र में अपना अधिकार स्थापित करने में सक्षम हुए। इस्लाम स्वीकार करने वाली जनजातियों ने मुहम्मद के नेतृत्व में एक एकजुट समुदाय का गठन किया, जिसे उम्माह के नाम से जाना जाता है। समुदाय ने राजनीतिक और सामाजिक संगठन के आधार के रूप में कार्य किया और मुहम्मद ने धार्मिक और राजनीतिक नेता दोनों के रूप में कार्य किया।

उत्तराधिकार और खिलाफत: 632 ई. में मुहम्मद की मृत्यु के बाद, नेतृत्व का प्रश्न उठा। मुहम्मद के सबसे करीबी साथियों में से एक, अबू बक्र को इस्लामिक राज्य का पहला ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) चुना गया था। इसने रशीदुन खलीफा की शुरुआत को चिह्नित किया, जो 632 से 661 ईस्वी तक चला। अबू बक्र के उत्तराधिकारी खलीफा उमर इब्न अल-खत्ताब, उस्मान इब्न अफ्फान और अली इब्न अबी तालिब थे। इस अवधि के दौरान, इस्लामिक राज्य ने सैन्य विजय के माध्यम से अपने क्षेत्र का विस्तार किया, जो फारस और उत्तरी अफ्रीका तक पहुंच गया।

विस्तार और प्रशासन: खलीफाओं ने क्षेत्रों के भीतर न्याय, सुरक्षा और धार्मिक स्वतंत्रता की स्थापना करते हुए इस्लामी सिद्धांतों पर आधारित शासन प्रणाली लागू की। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों की देखरेख के लिए राज्यपालों की नियुक्ति की और कानून के स्रोत के रूप में इस्लामी कानून, जिसे शरिया के नाम से जाना जाता है, के कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया। विजित आबादी को कुछ अधिकार दिए गए और उन्हें इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए प्रोत्साहित किया गया, हालाँकि धर्म परिवर्तन अनिवार्य नहीं था।

विभाजन और उमय्यद खलीफा: अली इब्न अबी तालिब की हत्या के बाद, इस्लामिक राज्य ने उत्तराधिकार संकट का अनुभव किया, जिससे अली के परिवार (शिया) और उमय्यद कबीले (सुन्नी) के समर्थकों के बीच विभाजन हो गया। उमय्यद शासक वंश के रूप में उभरे, जिन्होंने 661 ई. में उमय्यद खलीफा की स्थापना की। उमय्यद खलीफा ने इस्लामी राज्य का और विस्तार किया, जिसमें स्पेन, उत्तरी अफ्रीका और सिंधु घाटी के क्षेत्र शामिल थे।

निष्कर्ष :-  

7वीं शताब्दी के दौरान अरब क्षेत्र में इस्लामी राज्य की स्थापना के गहरे ऐतिहासिक परिणाम थे। इसने इस्लाम के प्रसार की नींव रखी, जो दुनिया के प्रमुख धर्मों में से एक बन गया। इस्लामिक राज्य के शासन, कानूनी प्रणाली और सांस्कृतिक उपलब्धियों ने बाद के मुस्लिम साम्राज्यों, जैसे अब्बासिड्स, ओटोमन्स और मुगलों को प्रभावित किया। इस अवधि के दौरान हुई सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और बौद्धिक प्रगति ने भी मानव सभ्यता की समग्र प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान दिया।


6. मध्यकालीन यूरोप मे सामंतवाद के उदय के क्या कारण थे ? तथा सामंतवाद के दो चरणों पर चर्चा कीजिए |

सामंतवाद एक सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था थी जो 9वीं से 15वीं शताब्दी तक मध्ययुगीन यूरोप पर हावी थी।  

पिरामिड के शीर्ष पर राजा था, जिसके पास राज्य की सारी भूमि का स्वामित्व था। राजा ने अपने सबसे भरोसेमंद रईसों और जागीरदारों को उनकी वफादारी, सैन्य सेवा और अन्य प्रकार के समर्थन के बदले में जमीन के टुकड़े दिए, जिन्हें जागीर   कहा जाता था।

मध्ययुगीन यूरोप में सामंतवाद के उदय के कई कारण हो सकते हैं। यहां कुछ प्रमुख कारक दिए गए हैं  :-

रोमन साम्राज्य का पतन: 5वीं शताब्दी में पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के बाद,   एक मजबूत केंद्रीय सरकार की अनुपस्थिति के कारण स्थानीयता और स्थानीय रक्षा और शासन की आवश्यकता बढ़ गई।

आर्थिक कारण :

मध्यकालीन यूरोप मे सामंतवाद के उदय के कारणों मे से आर्थिक कारण भी बहुत महत्वपूर्ण है | मध्यकालीन यूरोप मे सामंतों को कर वसूलने का जिम्मा भी दिया गया था जिसकी वजह से प्रशासन को काफी मदद मिली |

सामंतवाद के चरण

सामंतवाद के मुख्यत: दो चरण माने गए हैं, जो की इस प्रकार हैं :

  • पहला चरण : 9 वीं से 11वीं शताब्दी
  • दूसरा चरण : 11 वीं से 14 वीं शताब्दी

प्रथम चरण :

  • सामंतवाद के प्रथम चरण मे किसान लॉर्ड पर पूरी तरह से आश्रित थे
  • सामंतवाद के प्रथम चरण मे कृषि उत्पादन बहुत काम था जिसके कारण बहुत काम अधिशेष बच रहा था |
  • सामंतवाद के प्रथम चरण मे मुद्रा का प्रचालन बहुत कम था तथा अधिकांश लोग ग्रामीण थे तथा ग्रामीण जीवन की अधिकता थी |
  • सामंतवाद के प्रथम चरण मे प्रादयौगिकी का स्तर अत्यंत निम्न था |
  • सामंतवाद के प्रथम चरण मे भूमि के उपजाऊपन को बनाए रखने के लिए भूमि को परती छोड़ दिया जाता था |
  • सामंतवाद के प्रथम चरण मे जीवन प्रत्याशा अत्यंत निम्न थी |
  • सामंतवाद के प्रथम चरण मे बाल मृत्यु दर बहुत अधिक थी |
  • सामंतवाद के प्रथम चरण मे कुपोषण के कारण बच्चों की अकाल मृत्यु हो रही थी |

दूसरा चरण :

  • सामंतवाद के दूसरे चरण मे सामाजिक विकास होने लगा तथा परिस्थितियों मे काफी हद तक सुधार भी होने लगा |
  • सामंतवाद के दूसरे चरण मे आर्थिक विकास भी होने लगा था |
  • सामंतवाद के दूसरे चरण मे कृषि दासों को मुक्त कर दिया गया था |
  • सामंतवाद के दूसरे चरण मे व्यापार संबंधी सभी प्रतिबंधों को हटा दिया गया था |
  • सामंतवाद के दूसरे चरण मे जनसंख्या मे वृद्धि होने लगी |
  • सामंतवाद के दूसरे चरण मे भूमि की मांग भी बढ़ने लगी |
  • सामंतवाद के दूसरे चरण मे प्रद्योगिकी मे काफी सुधार आया तथा इसका स्तर बढ़ गया |
  • सामंतवाद के दूसरे चरण मे व्यापार तथा वाणिज्य का भी विकास हुआ तथा इसमे वृद्धि दर्ज हुई |
  • सामंतवाद के दूसरे चरण मे यूरोप मे मुद्रा अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिल गया था |

 

सामंतवाद के तहत,   पिरामिड के शीर्ष पर राजा था, जिसके पास राज्य की सारी भूमि का स्वामित्व था। राजा ने अपने सबसे भरोसेमंद रईसों और जागीरदारों को उनकी वफादारी, सैन्य सेवा और अन्य प्रकार के समर्थन के बदले में जमीन के टुकड़े दिए, जिन्हें जागीर या जागीर कहा जाता था।

कुलीन, जिन्हें लॉर्ड्स या ज़मींदार भी कहा जाता है, अपनी भूमि के प्रबंधन और सुरक्षा के लिए जिम्मेदार थे। उन्होंने अपनी ज़मीन को छोटे-छोटे हिस्सों में बाँट दिया और उन्हें जागीरदारों को दे दिया, जो आम तौर पर शूरवीर या छोटे स्वामी होते थे। बदले में, जागीरदारों ने अपनी वफादारी की प्रतिज्ञा की, सैन्य सेवा प्रदान की, और सलाह और परामर्श जैसी अन्य सेवाएँ भी प्रदान कीं।

सामंती पदानुक्रम के सबसे निचले स्तर में किसान शामिल थे, जिन्हें सर्फ़ या विलेन भी कहा जाता था। किसान भूमि पर काम करते थे और सुरक्षा तथा भूमि पर रहने के अधिकार के बदले में स्वामी को श्रम, फसलें और अन्य सामान प्रदान करते थे। वे भूमि से बंधे थे और स्वामी की अनुमति के बिना नहीं जा सकते थे।

निष्कर्ष :-

अतः इस प्रकार मध्यकालीन यूरोप मे सामंतवाद का दो चरणों मे विकास देखने को मिला | तथा समय अंतराल मे बहुत ज्यादा परिवर्तन भी देखने को मिले |

  

7. मध्यकालीन यूरोप मे हुई प्रमुख वैज्ञानिक प्रगतियों पर एक टिप्पणी लिखिए |

उत्तर - यूरोप में मध्ययुगीन काल (लगभग 5वीं से 15वीं शताब्दी) के दौरान, वैज्ञानिक प्रगति धार्मिक और दार्शनिक मान्यताओं से काफी प्रभावित थी, और अधिकांश वैज्ञानिक ज्ञान प्राचीन ग्रीक और रोमन ग्रंथों में निहित था। जबकि मध्ययुगीन यूरोप का ध्यान मुख्य रूप से धार्मिक और दार्शनिक मामलों पर था, फिर भी इस दौरान कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रगति हुई थी। यहां मध्यकालीन यूरोप में हुई कुछ प्रमुख वैज्ञानिक प्रगतियां दी गई हैं:

प्राचीन ग्रंथों का संरक्षण और अनुवाद: मध्यकालीन विद्वानों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान प्राचीन वैज्ञानिक ग्रंथों का संरक्षण और अनुवाद था। मठवासी स्क्रिप्टोरिया ने अरस्तू, टॉलेमी और यूक्लिड जैसे दार्शनिकों के कार्यों की नकल करने और उन्हें सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन संरक्षित ग्रंथों ने मध्ययुगीन यूरोप में वैज्ञानिक ज्ञान की नींव रखी और इन्हें अक्सर लैटिन में अनुवादित किया गया, जिससे वे पूरे महाद्वीप के विद्वानों के लिए आसन हो गए |

विश्वविद्यालय और शिक्षा: मध्यकाल में विश्वविद्यालयों का उदय हुआ, विशेषकर इटली, फ्रांस और इंग्लैंड में। ये संस्थान शिक्षा के केंद्र बन गए |

खगोल विज्ञान और ब्रह्मांड विज्ञान: मध्यकालीन विद्वानों ने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने टॉलेमी के कार्यों पर निर्माण किया और ब्रह्मांड के जटिल मॉडल विकसित किए। भूकेंद्रिक मॉडल, जिसने पृथ्वी को ब्रह्मांड के केंद्र में रखा, व्यापक रूप से स्वीकार किया गया। जोहान्स डी सैक्रोबोस्को और निकोलस कोपरनिकस जैसे खगोलविदों ने अवलोकन और गणना की जिससे आकाशीय गतिविधियों के बारे में हमारी समझ बढ़ी |

चिकित्सा और शरीर रचना: मध्ययुगीन यूरोप में चिकित्सा का अभ्यास गैलेन और हिप्पोक्रेट्स जैसे प्राचीन चिकित्सकों के कार्यों से काफी प्रभावित था। इटली में स्कूल ऑफ सालेर्नो जैसे चिकित्सा विश्वविद्यालयों ने शरीर रचना विज्ञान के अध्ययन को बढ़ावा दिया |

इंजीनियरिंग और तकनीकी प्रगति: मध्यकालीन यूरोप में इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी में महत्वपूर्ण प्रगति देखी गई। इस अवधि के दौरान पवन चक्कियाँ, पनचक्कियाँ और यांत्रिक घड़ियों का व्यापक उपयोग जैसे नवाचार सामने आए। वास्तुकला में प्रगति, विशेष रूप से कैथेड्रल और महल के निर्माण में, प्रभावशाली इंजीनियरिंग कौशल और तकनीकों का प्रदर्शन किया।

कृषि : मध्यकालीन यूरोप में महत्वपूर्ण कृषि प्रगति देखी गई, जिसमें नई फसलों की शुरूआत, फसल चक्र तकनीक और सिंचाई में सुधार शामिल हैं। तीन-क्षेत्र प्रणाली, जिसने कृषि भूमि को तीन खंडों में विभाजित किया, ने उत्पादकता और मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में मदद की।

निष्कर्ष :-

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मध्ययुगीन यूरोप की वैज्ञानिक प्रगति निम्नलिखित शताब्दियों में हुई वैज्ञानिक क्रांति की तुलना में सीमित थी। हालाँकि, प्राचीन ज्ञान के संरक्षण, विश्वविद्यालयों की स्थापना और विभिन्न वैज्ञानिक क्षेत्रों में शुरुआती विकास ने भविष्य की प्रगति और आधुनिक विज्ञान के अंतिम उद्भव के लिए आधार तैयार किया।


8. माया सभ्यता की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा कीजिए तथा इसका पतन किस प्रकार हुआ था ?

उत्तर - माया सभ्यता एक अत्यंत उन्नत पूर्व-कोलंबियाई सभ्यता थी जो वर्तमान मेक्सिको, ग्वाटेमाला, बेलीज़, होंडुरास और अल साल्वाडोर में पनपी थी। माया सभ्यता की कुछ मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं:

वास्तुकला: माया ने स्मारकीय वास्तुकला के साथ प्रभावशाली शहरों का निर्माण किया। उन्होंने पिरामिडों, मंदिरों, महलों और वेधशालाओं का निर्माण किया, जिन्हें अक्सर जटिल पत्थर की नक्काशी और प्लास्टर के अग्रभाग से सजाया जाता था। प्रमुख उदाहरणों में टिकल, पैलेनक और चिचेन इट्ज़ा के मंदिर शामिल हैं।

चित्रलिपि लेखन: माया ने चित्रलिपि से बनी एक जटिल लेखन प्रणाली विकसित की। उन्होंने इसका उपयोग ऐतिहासिक घटनाओं, धार्मिक अनुष्ठानों और खगोलीय टिप्पणियों को रिकॉर्ड करने के लिए किया।  

गणित और खगोल विज्ञान: माया ने गणित और खगोल विज्ञान में महत्वपूर्ण प्रगति की। उन्होंने एक सटीक कैलेंडर प्रणाली विकसित की जो सौर और चंद्र दोनों चक्रों पर नज़र रखती थी, जिससे उन्हें खगोलीय घटनाओं की सटीक भविष्यवाणी करने की अनुमति मिलती थी। 

कृषि और व्यापार: माया कुशल किसान थे जिन्होंने कृषि तकनीक विकसित की। उन्होंने सीढ़ीदार और सिंचाई जैसे तरीकों का उपयोग करके मक्का (मकई), सेम, स्क्वैश और अन्य फसलों की खेती की।  

सामाजिक और राजनीतिक संगठन: माया सभ्यता दैवीय राजाओं द्वारा शासित शहर-राज्यों में संगठित थी। समाज पदानुक्रमित था, जिसमें धार्मिक समारोहों, राजनीतिक मामलों और युद्ध की देखरेख करने वाला एक कुलीन वर्ग था। आम लोगों, किसानों, कारीगरों और दासों ने बहुसंख्यक आबादी बनाई।

कला एवं साहित्य : माया सभ्यता के लोग मंदिर निर्माण तथा मूर्तियाँ बनाने मे बहुत कुशल थे | माया सभ्यता के दौरान बहुत सी चित्रकला का भी विकास हुआ |

मक्के का महत्व : मक्के की खेती माया सभ्यता का प्रमुख आधार था तथा मक्के की फसल का धार्मिक महत्व भी बहुत अधिक था |

धार्मिक विश्वास : माया सभ्यता के लोग यज्ञ परंपरा मे विश्वास रखते थे तथा बहुत से देवी देवताओं का पूजा पाठ भी किया करते थे | इससे यह पता चलता है की ये लोग बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे |

माया सभ्यता का पतन विद्वानों के बीच एक जटिल और बहस का विषय है। कई सिद्धांत इसके पतन की व्याख्या करने का प्रयास करते हैं, और यह संभावना है कि कारकों के संयोजन ने इसके पतन में योगदान दिया:

पर्यावरणीय कारक: कुछ शोधकर्ताओं का सुझाव है कि पर्यावरणीय गिरावट ने माया के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। माया ने गहन कृषि का अभ्यास किया, जिससे वनों की कटाई, मिट्टी का क्षरण और प्राकृतिक संसाधनों की कमी हुई। इसके परिणामस्वरूप भोजन की कमी और सामाजिक अशांति हो सकती है।

युद्ध और संघर्ष: प्रतिस्पर्धी शहर-राज्यों के बीच युद्ध माया सभ्यता की एक सामान्य विशेषता थी। ऐसा माना जाता है कि बढ़े हुए संघर्ष और सैन्यीकरण से संसाधनों पर दबाव पड़ सकता है, राजनीतिक प्रणालियाँ कमजोर हो सकती हैं और व्यापार नेटवर्क बाधित हो सकता है।

राजनीतिक अस्थिरता: माया समाज शहर-राज्यों में संगठित था, और राजनीतिक अस्थिरता और सत्ता संघर्ष के प्रमाण हैं। शासकों को उखाड़ फेंकने सहित आंतरिक संघर्ष, केंद्रीकृत प्राधिकरण को कमजोर कर सकते थे और सामाजिक विघटन में योगदान दे सकते थे।

सूखा: हाल के शोध से पता चलता है कि लंबे समय तक सूखे ने, संभवतः जलवायु परिवर्तन के कारण,  माया क्षेत्र को प्रभावित किया। इस सूखे के कारण कृषि उत्पादकता बाधित हो सकती है, जिससे भोजन की कमी, सामाजिक अशांति और जनसंख्या में गिरावट हो सकती है।

निष्कर्ष :-

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि माया सभ्यता पूरी तरह से लुप्त नहीं हुई लेकिन राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभाव में गिरावट का अनुभव हुआ। माया लोग अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को बरकरार रखते हुए आज भी इस क्षेत्र में रह रहे हैं


9. मध्यकालीन यूरोप मे जनसांख्यिकी मे आए परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी कारणों की चर्चा कीजिए |

उत्तर - मध्ययुगीन यूरोप की जनसांख्यिकी में विभिन्न कारकों के कारण महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। यहां कुछ प्रमुख कारण दिए गए हैं जिन्होंने इन जनसांख्यिकीय बदलावों में योगदान दिया:

कृषि मे बदलाव : इस अवधि में नई कृषि तकनीकों की शुरूआत और अपनाना देखा गया, इन नवाचारों से कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई, जिससे खाद्य उत्पादन बढ़ने लगा । इस अधिशेष ने जनसंख्या वृद्धि को अनुमति दी क्योंकि इससे बड़ी आबादी कायम रही और अकाल मे कमी आई |

जनसंख्या वृद्धि: बेहतर कृषि उत्पादकता और बेहतर जीवन स्थितियों के कारण मध्ययुगीन काल के दौरान जनसंख्या में वृद्धि हुई। स्वास्थ्य देखभाल और स्वच्छता में प्रगति के साथ-साथ भोजन की उपलब्धता ने लंबी जीवन प्रत्याशा और कम मृत्यु दर में योगदान दिया। इसके अतिरिक्त, बाद के मध्ययुगीन काल में ब्लैक डेथ जैसी प्रमुख महामारियों की गिरावट ने जनसंख्या वृद्धि को और बढ़ावा दिया।

शहरीकरण: मध्यकालीन यूरोप में कस्बों और शहरों का विकास हुआ, जो मुख्य रूप से व्यापार और वाणिज्य जैसी आर्थिक गतिविधियों से प्रेरित था। शहरी केंद्रों ने बेहतर आर्थिक अवसर और सामाजिक गतिशीलता चाहने वाले लोगों को आकर्षित किया।  

प्रवास : मध्यकालीन यूरोप में महत्वपूर्ण आंतरिक और बाह्य प्रवास देखा गया। आंतरिक प्रवासन तब हुआ जब किसान रोजगार की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों से कस्बों और शहरों की ओर चले गए। बाहरी प्रवास में धर्मयुद्ध जैसे आंदोलन शामिल थे, जिसमें यूरोप से पवित्र भूमि और वापस बड़े पैमाने पर जनसंख्या आंदोलन शामिल थे।  

युद्ध और संघर्ष: लगातार युद्ध और संघर्ष मध्ययुगीन यूरोप की विशेषता थे। इन घटनाओं के गहरे जनसांख्यिकीय परिणाम हुए। युद्धों, लूटपाट और आक्रमणों के कारण जनसंख्या में हानि का जनसंख्या संख्या पर सीधा प्रभाव पड़ा, जबकि बुनियादी ढांचे के विनाश और कृषि के विघटन के कारण जनसांख्यिकीय पैटर्न पर दीर्घकालिक परिणाम हुए।

सामाजिक और आर्थिक कारक: सामाजिक और आर्थिक कारकों, जैसे विरासत कानूनों में बदलाव, संपत्ति के अधिकार और सामंती व्यवस्था ने जनसांख्यिकीय बदलाव को प्रभावित किया। उदाहरण के लिए, सामंती व्यवस्था में उत्तराधिकारियों के बीच भूमि के उपविभाजन के कारण अक्सर छोटे भूखंड बनते थे और प्रत्येक अगली पीढ़ी के लिए संसाधन सीमित हो जाते थे, जिसके परिणामस्वरूप परिवार के आकार और जनसंख्या वृद्धि दर प्रभावित होती थी।

धार्मिक और सांस्कृतिक कारक: ईसाई चर्च के प्रभाव ने जनसांख्यिकीय परिवर्तनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। धार्मिक सिद्धांत और सांस्कृतिक प्रथाओं, जैसे विवाह और प्रजनन को प्रोत्साहन, ने जनसंख्या वृद्धि दर को प्रभावित किया।

निष्कर्ष :-

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इन कारकों का प्रभाव मध्ययुगीन यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों और समयावधियों में भिन्न-भिन्न था। इसके अतिरिक्त, देखे गए जनसांख्यिकीय परिवर्तन एक समान नहीं थे और विभिन्न सामाजिक वर्गों, क्षेत्रों और देशों के बीच भिन्न थे


10. इंका तथा एजटेक सभ्यताओं की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए |

इंका और एज़्टेक सभ्यताएँ दो प्रमुख मेसोअमेरिकन सभ्यताएँ थीं जो विभिन्न क्षेत्रों और समय अवधियों में मौजूद थीं। हालाँकि उनमें कुछ समानताएँ थीं, लेकिन उनमें विशिष्ट विशेषताएँ भी थीं। यहां प्रत्येक सभ्यता की मुख्य विशेषताएं हैं:

इंका सभ्यता:

भौगोलिक स्थिति: इंका सभ्यता दक्षिण अमेरिका के एंडियन क्षेत्र में, मुख्य रूप से वर्तमान पेरू, इक्वाडोर, बोलीविया और चिली और अर्जेंटीना के कुछ हिस्सों में पनपी।

सरकार और प्रशासन: इंका साम्राज्य अत्यधिक केंद्रीकृत था, जिसके शीर्ष पर सापा इंका नाम से जाना जाने वाला एक शक्तिशाली शासक था। सरकार एक पदानुक्रमित प्रणाली पर आधारित थी, जिसमें शीर्ष पर शासक होता था, उसके बाद कुलीन, प्रशासक और आम लोग होते थे।

वास्तुकला: इंका लोग  अपने प्रभावशाली इंजीनियरिंग कार्यों के लिए प्रसिद्ध थे, जैसे कि उनका जटिल सड़क नेटवर्क जिसे "क़हापाक सान" कहा जाता था, जो हजारों किलोमीटर तक फैला था और साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों को जोड़ता था। उन्होंने प्रभावशाली पत्थर की संरचनाओं का भी निर्माण किया, जिनमें माचू पिचू,   शामिल हैं।

कृषि और सीढ़ीदार खेती: इंका लोग  कुशल कृषि विशेषज्ञ थे और उन्होंने खड़ी एंडियन ढलानों पर सीढ़ीदार खेती प्रणाली विकसित की थी। उन्होंने आलू, मक्का, क्विनोआ और विभिन्न फल जैसी फसलें उगाईं।

सामाजिक संरचना: इंका समाज विभिन्न सामाजिक वर्गों में संगठित था। शीर्ष पर शासक अभिजात वर्ग था, उसके बाद कुलीन, पुजारी, कारीगर और किसान थे।  

उन्नत इंजीनियरिंग: इंकास अपने प्रभावशाली इंजीनियरिंग कौशल के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने प्रसिद्ध   विस्तृत सड़क प्रणालियों का निर्माण किया, जो हजारों किलोमीटर तक फैली हुई थी और उनके विशाल साम्राज्य में संचार और व्यापार की सुविधा प्रदान करती थी।  

एज़्टेक सभ्यता:

भौगोलिक स्थिति: एज़्टेक सभ्यता मेक्सिको के मध्य क्षेत्र में फली-फूली, उनकी राजधानी तेनोच्तितलान, लेक टेक्सकोको के एक द्वीप पर स्थित थी, जो अब मेक्सिको सिटी का स्थान है।

सरकार और प्रशासन: एज़्टेक साम्राज्य शहर-राज्यों का एक विकेन्द्रीकृत संघ था, जिसके शासक को ह्युई टाल्टोनी के नाम से जाना जाता था। प्रत्येक शहर-राज्य का अपना शासक था, लेकिन एज़्टेक सम्राट का महत्वपूर्ण प्रभाव था और वह अधीनस्थ क्षेत्रों से कर की मांग करता था।

धर्म और पौराणिक कथाएँ: एज्टेक का एक जटिल बहुदेववादी धर्म था जिसमें देवताओं का समूह था।  देवताओं की पूजा करने के लिए मंदिरों और पिरामिडों का निर्माण किया गया, जिनमें टेम्पलो मेयर सबसे प्रमुख है।

कृषि और चिनमपास: एज़्टेक ने एक अनूठी कृषि प्रणाली विकसित की जिसे चिनमपास के नाम से जाना जाता है, जिसमें झील में कृत्रिम द्वीप  बनाना शामिल था।  मक्का, सेम, स्क्वैश और टमाटर जैसी फसलों की गहन खेती की |

सैन्य और युद्ध: एज़्टेक एक मजबूत  सैन्य शक्ति थे और उन्होंने विजय के माध्यम से अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उनके पास ईगल और जगुआर योद्धाओं के नाम से जानी जाने वाली एक पेशेवर सेना थी, जो अत्यधिक प्रशिक्षित और सुव्यवस्थित थी।  

निष्कर्ष :-

दोनों सभ्यताओं ने अपने-अपने क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया और इतिहास पर स्थायी प्रभाव छोड़ा। इंका और एज़्टेक सभ्यताओं में विशिष्ट सांस्कृतिक और सामाजिक विशेषताएं थीं|


11. मार्टिन लूथर के योगदान का वर्णन करते हुए यूरोप मे प्रोटेसटेंटवाद के उदय का विश्लेषण कीजिए |

यूरोप में प्रोटेस्टेंटवाद का उदय एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था जो 16वीं शताब्दी में रोमन कैथोलिक चर्च के अधिकार और प्रथाओं को चुनौती देते हुए उभरा। इस आंदोलन में योगदान देने वाले प्रमुख व्यक्तियों में से एक मार्टिन लूथर, एक जर्मन भिक्षु, धर्मशास्त्री और सुधारक थे। लूथर के विचारों और कार्यों ने प्रोटेस्टेंट सुधार को आकार देने और उसके बाद पूरे यूरोप में फैलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लूथर के योगदान के कुछ प्रमुख पहलू इस प्रकार हैं:

थीसिस: 1517 में, लूथर ने प्रसिद्ध रूप से जर्मनी के विटनबर्ग में कैसल चर्च के दरवाजे पर अपनी  थीसिस कील ठोक दी। ये थीसिस कैथोलिक चर्च की कुछ प्रथाओं, लूथर की थीसिस ने व्यापक बहस छेड़ दी और चर्च के अधिकार और शिक्षाओं पर सवाल उठाए।

बाइबिल का अनुवाद: लूथर द्वारा जर्मन में बाइबिल का अनुवाद प्रोटेस्टेंटवाद के प्रसार में एक महत्वपूर्ण योगदान था। बाइबिल को आम लोगों के लिए उनकी मूल भाषा में सुलभ बनाकर, उन्होंने धर्मग्रंथ की व्याख्या पर कैथोलिक चर्च के एकाधिकार को चुनौती दी। इससे बाइबल के व्यक्तिगत पढ़ने और व्याख्या को बढ़ावा देने में मदद मिली |

आस्था  :   उन्होंने तर्क दिया कि मुक्ति अच्छे कार्यों या चर्च की मध्यस्थता से नहीं बल्कि ईश्वर की कृपा में विश्वास के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है। इस शिक्षण ने कैथोलिक चर्च की पवित्र प्रणाली को चुनौती दी और व्यक्ति और ईश्वर के बीच सीधे संबंध पर जोर दिया।

पोप के अधिकार की अस्वीकृति: लूथर ने पोप के अधिकार और कैथोलिक चर्च की पदानुक्रमित संरचना की कड़ी आलोचना की। उन्होंने धर्मग्रंथ की सर्वोच्चता के लिए तर्क दिया और कई कैथोलिक सिद्धांतों और प्रथाओं को खारिज कर दिया, पोप के अधिकार को लूथर की चुनौती ने स्वतंत्र प्रोटेस्टेंट चर्चों की स्थापना के लिए आधार तैयार करने में मदद की।

जर्मन राजकुमारों का समर्थन: लूथर के विचारों को जर्मन राजकुमारों के बीच महत्वपूर्ण समर्थन मिला, जो पोप और पवित्र रोमन सम्राट के अधिकार से अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता का दावा करना चाहते थे। कई राजकुमारों ने लूथर और उनके अनुयायियों की रक्षा की, जिससे जर्मनी और उसके बाहर सुधार आंदोलन को गति मिली।

प्रिंटिंग प्रेस: प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार ने पूरे यूरोप में लूथर के लेखन और विचारों के तेजी से प्रसार की सुविधा प्रदान की। लूथर की रचनाएँ बड़ी मात्रा में छपीं और व्यापक रूप से वितरित की गईं, जिससे वे व्यापक दर्शकों के लिए सुलभ हो गईं और प्रोटेस्टेंटवाद के प्रसार में योगदान हुआ।

प्रिंटिंग प्रेस की मदद से लूथर के विचार तेजी से पूरे यूरोप में फैल गए, जिससे उनके लेखन का बड़े पैमाने पर उत्पादन और वितरण संभव हो सका। अन्य सुधारकों, जैसे स्विट्जरलैंड में जॉन केल्विन और ज्यूरिख में हल्ड्रिच ज़िंगली ने भी अपने स्वयं के धार्मिक विचारों को विकसित करके और कैथोलिक चर्च के अधिकार को चुनौती देकर प्रोटेस्टेंटवाद के विकास में योगदान दिया।

प्रोटेस्टेंटवाद के उदय के महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभाव थे। इसके कारण धार्मिक संघर्ष हुए, जैसे कि यूरोप में धर्म युद्ध, साथ ही नए प्रोटेस्टेंट संप्रदायों की स्थापना भी हुई।  

निष्कर्ष :-

प्रोटेस्टेंटवाद के उदय में मार्टिन लूथर का योगदान कैथोलिक चर्च के अधिकार और प्रथाओं को चुनौती देने में मूलभूत था। उनके विचारों और कार्यों ने एक सुधार आंदोलन को प्रज्वलित किया जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रोटेस्टेंट संप्रदायों की स्थापना हुई और यूरोप में धार्मिक और सामाजिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव आया।


12. हिन्द महासागर मे पुर्तगाली व्यापार का विश्लेषण कीजिए | इसके पतन के क्या कारण थे ?

उत्तर - 15वीं और 16वीं शताब्दी के दौरान हिंद महासागर में पुर्तगाली व्यापार ने वैश्विक वाणिज्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला और यूरोपीय अन्वेषण और उपनिवेशीकरण के पाठ्यक्रम को आकार दिया। वास्को डी गामा और पेड्रो अल्वारेस कैब्राल जैसे खोजकर्ताओं के नेतृत्व में, पुर्तगालियों ने मध्य पूर्व और भूमध्य सागर के पारंपरिक मध्यस्थों और एकाधिकार को दरकिनार करते हुए, पूर्व के आकर्षक मसाला बाजारों के लिए सीधे व्यापार मार्ग स्थापित करने की मांग की।

मसाला व्यापार : हिंद महासागर में पुर्तगाली व्यापार का प्राथमिक उद्देश्य मसाला व्यापार, विशेषकर काली मिर्च, लौंग, जायफल और दालचीनी के व्यापार पर नियंत्रण हासिल करना था।

व्यापारिक चौकियाँ और किले: पुर्तगालियों ने हिंद महासागर के तटों पर व्यापारिक चौकियों और किलों का एक नेटवर्क स्थापित किया, विशेष रूप से गोवा (भारत), मलक्का (मलेशिया), होर्मुज़ (फ़ारस की खाड़ी), और मकाऊ (चीन) जैसे रणनीतिक स्थानों में।  

एकाधिकार और हिंसा: पुर्तगालियों ने मसाला व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करने की कोशिश की, वे अक्सर बाज़ार को नियंत्रित करने के लिए हिंसा और धमकी का सहारा लेते थे। वे सैन्य अभियानों में लगे रहे, प्रतिद्वंद्वी व्यापारियों पर हमला किया और विशेष व्यापारिक अधिकारों को लागू किया, जिसके कारण स्वदेशी शक्तियों और यूरोपीय प्रतिस्पर्धियों के साथ संघर्ष हुआ।

समुद्री प्रौद्योगिकी : हिंद महासागर में पुर्तगाली यात्राएँ समुद्री प्रौद्योगिकी और नेविगेशन में प्रगति के कारण संभव हुईं। उन्होंने कैरवेल और कैरैक जैसे जहाज विकसित किए, जो अधिक समुद्र में चलने योग्य थे और लंबी दूरी की यात्रा करने में सक्षम थे।  

सांस्कृतिक आदान-प्रदान और उपनिवेशवाद: हिंद महासागर में पुर्तगालियों की उपस्थिति से यूरोप और पूर्व के बीच महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ। उन्होंने उपनिवेश स्थापित किए और स्थानीय आबादी के साथ अंतर्जातीय विवाह किया|

प्रतिस्पर्धा: समय के साथ, अन्य यूरोपीय शक्तियों, विशेष रूप से डच और अंग्रेजी, ने हिंद महासागर में पुर्तगाली प्रभुत्व को चुनौती दी। इन प्रतिद्वंद्वियों ने अपने स्वयं के व्यापारिक केंद्र स्थापित किए और अंततः पुर्तगालियों को उनके कई गढ़ों से बाहर निकाल दिया, जिससे क्षेत्र में पुर्तगाली प्रभाव में गिरावट आई।

हिंद महासागर में पुर्तगाली व्यापार की गिरावट को कई प्रमुख कारकों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है:

यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों से प्रतिस्पर्धा: अन्य यूरोपीय शक्तियों, जैसे डच, अंग्रेजी और फ्रांसीसी, ने पुर्तगाली एकाधिकार को चुनौती देने और हिंद महासागर में अपने स्वयं के व्यापारिक केंद्र स्थापित करने की मांग की।  बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने क्षेत्र में पुर्तगाली व्यापारिक प्रभुत्व को ख़त्म कर दिया।

स्थानीय प्रतिरोध: पुर्तगालियों को स्थानीय आबादी और क्षेत्रीय शक्तियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। देशी व्यापारियों और बिचौलियों ने पुर्तगाली-नियंत्रित बंदरगाहों को बायपास करने और अपने स्वयं के व्यापार नेटवर्क स्थापित करने की कोशिश की, जिससे पुर्तगाली व्यापार की लाभप्रदता कम हो गई। क्षेत्रीय साम्राज्यों और सल्तनतों, जैसे कि ओटोमन साम्राज्य, सफ़ाविद और मुगलों का उद्देश्य भी अपने स्वयं के व्यापारिक हितों की रक्षा करना था, जिससे पुर्तगाली व्यापार मार्गों में कठिनाई आई |

राजनीतिक अस्थिरता  : पुर्तगाली साम्राज्य ने राजनीतिक अस्थिरता और उत्तराधिकार संकट का अनुभव किया, जिसने केंद्रीय प्रशासन और शासन को कमजोर कर दिया। 1580 में, पुर्तगाल को स्पेनिश साम्राज्य में समाहित कर लिया गया, जिससे हिंद महासागर में पुर्तगाली व्यापार को बनाए रखने से ध्यान और संसाधन दूर हो गए।

सतत नवाचार का अभाव: हालाँकि पुर्तगालियों के पास शुरू में बेहतर नौसैनिक तकनीक और हथियार थे, लेकिन वे अपनी तकनीकी बढ़त को बनाए रखने में विफल रहे। उन्होंने मसालों से परे अपने व्यापार के अनुसंधान, विकास और विविधीकरण में पर्याप्त निवेश नहीं किया। इससे बाज़ार की बदलती माँगों और उभरते उद्योगों के अनुकूल ढलने की उनकी क्षमता सीमित हो गई, जिससे हिंद महासागर व्यापार में उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता और कम हो गई।

निष्कर्ष :-

अतः सामूहिक रूप से, यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों से प्रतिस्पर्धा, स्थानीय प्रतिरोध, आर्थिक बाधाएं, उच्च लागत, राजनीतिक अस्थिरता और निरंतर नवाचार की कमी सहित इन कारकों ने हिंद महासागर में पुर्तगाली व्यापार में गिरावट में योगदान दिया।


13. मध्यकालीन यूरोप मे परिवारों की संरचना का विश्लेषण कीजिए |

उत्तर - मध्ययुगीन यूरोप में परिवार की संरचना मुख्य रूप से पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर आधारित थी, जिसमें परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए एक पदानुक्रमित व्यवस्था और अलग-अलग भूमिकाएँ थीं।  

पितृसत्ता  :

परिवार का मुखिया आम तौर पर पिता या सबसे बड़ा पुरुष सदस्य होता था, जिसके पास घर पर अधिकार और निर्णय लेने की शक्ति होती थी।

विवाह:

मध्ययुगीन यूरोप में विवाह एक महत्वपूर्ण संस्था थी, जो अक्सर प्रेम के बजाय राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक कारणों से तय की जाती थी। विवाह का प्राथमिक उद्देश्य संतानोत्पत्ति, पारिवारिक वंश को जारी रखना और धन तथा शक्ति को सुदृढ़ करना था। पत्नियों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने पतियों के प्रति आज्ञाकारी और आज्ञाकारी होंगी, घरेलू मामलों का प्रबंधन करेंगी, बच्चों का पालन-पोषण करेंगी और घर की देखभाल करेंगी। पति परिवार का भरण-पोषण करने, बाहरी मामलों का प्रबंधन करने और सार्वजनिक रूप से परिवार का प्रतिनिधित्व करने के लिए जिम्मेदार थे।

विस्तारित और एकल परिवार:

मध्ययुगीन यूरोप में विस्तारित और एकल परिवार दोनों संरचनाएँ मौजूद थीं। विस्तारित परिवार, जिसमें कई पीढ़ियाँ एक साथ रहती थीं, कुलीन और उच्च वर्गों के बीच आम था। इसके विपरीत, एकल परिवार, जिसमें माता-पिता और उनके बच्चे शामिल होते हैं, सीमित संसाधनों और गतिशीलता जैसे व्यावहारिक विचारों के कारण निम्न सामाजिक वर्गों में अधिक प्रचलित थे।

विरासत और उत्तराधिकार:

वंशानुक्रम में ज्येष्ठाधिकार के सिद्धांत का पालन किया जाता है, जहां सबसे बड़े बेटे को परिवार की अधिकांश संपत्ति, भूमि और उपाधियाँ विरासत में मिलती हैं। छोटे बेटों को अक्सर छोटे हिस्से मिलते थे या उन्हें अपनी किस्मत कहीं और तलाशनी पड़ती थी, जैसे कि सेना या चर्च के माध्यम से। बेटियों को आम तौर पर महत्वपूर्ण धन या संपत्ति विरासत में नहीं मिलती थी |

घरेलू श्रम:

परिवार के भीतर श्रम का विभाजन स्पष्ट था और लिंग भूमिकाओं पर आधारित था। पुरुष घर से बाहर कृषि, व्यापार या शिल्प कौशल जैसी गतिविधियों में लगे हुए थे, जबकि महिलाएँ घर के प्रबंधन के लिए ज़िम्मेदार थीं, जिसमें खाना बनाना, सफाई और बच्चों की देखभाल जैसे कार्य शामिल थे।

रिश्तेदारी और दायित्व:

रिश्तेदार अक्सर सामाजिक और आर्थिक रूप से एक-दूसरे का समर्थन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये नेटवर्क विशेष रूप से संकट के समय या विरासत विवादों के दौरान अपनेपन, सुरक्षा और समर्थन की भावना प्रदान करते हैं।

बच्चे तथा महिलाएं :

बच्चे परिवार का महत्वपूर्ण अंग माने जाते थे क्योंकि वह वंश को आगे बढ़ाते थे | महिलाओं की स्थिति काफी दयनीय थी तथा सामान्य महिलाओं के अधिकार काफी सीमित थे परंतु अभिजात महिलाओं को कुछ अधिक अधिकार प्राप्त थे |

धार्मिक प्रभाव: मध्ययुगीन यूरोप में धर्म ने एक केंद्रीय भूमिका निभाई, और परिवार प्रमुख ईसाई धर्म की शिक्षाओं और प्रथाओं से प्रभावित थे। चर्च ने समाज की नींव के रूप में विवाह, प्रजनन और परिवार इकाई के महत्व पर जोर दिया।  

जीवन प्रत्याशा और पारिवारिक जीवन: मध्ययुगीन काल के दौरान जीवन प्रत्याशा कम थी, और परिवारों को अक्सर अपेक्षाकृत कम उम्र में परिवार के सदस्यों को खोने का अनुभव होता था।   परिवार के बुजुर्ग सदस्यों का सम्मान किया जाता था और उन्हें मार्गदर्शन दिया जाता था, और देखभाल और समर्थन के लिए पारिवारिक संबंध आवश्यक थे।

दास :

परिवारों मे दासों को शामिल किया जाता था जिनसे सभी घरेलू कार्य करवाए जाते थे | दास मध्यकालीन यूरोप मे परिवारों का एक महत्वपूर्ण अंग माने जाते थे |

निष्कर्ष :-

कुल मिलाकर, मध्ययुगीन यूरोप में परिवार की संरचना पितृसत्ता में गहराई से निहित थी, जिसमें पिता घर का मुखिया होता था। परिवार के भीतर भूमिकाएँ लिंग द्वारा निर्धारित की जाती थीं, और विरासत पुरुष ज्येष्ठाधिकार को प्राथमिकता देती थी। हालाँकि, यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि पारिवारिक संरचनाएँ सामाजिक वर्ग, भूगोल और सांस्कृतिक कारकों के आधार पर भिन्न हो सकती हैं।


14. असीरियाई साम्राज्य की प्रमुख विशेषताओं पर चर्चा कीजिए |

उत्तर - असीरियन साम्राज्य, जो लगभग 2025 ईसा पूर्व से 609 ईसा पूर्व तक अस्तित्व में था, एक शक्तिशाली मेसोपोटामिया सभ्यता थी जो अपनी सैन्य कौशल, उन्नत प्रशासनिक प्रणालियों और सांस्कृतिक उपलब्धियों के लिए जानी जाती थी। असीरियन साम्राज्य की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं:

उत्पत्ति और विस्तार: असीरियन साम्राज्य की उत्पत्ति 25वीं शताब्दी ईसा पूर्व में अशूर शहर-राज्य में हुई थी। प्रारंभ में, यह एक छोटा राज्य था, लेकिन समय के साथ, अश्शूरियों ने सैन्य अभियानों और विजय के माध्यम से अपने क्षेत्र का विस्तार किया। तिग्लाथ-पिलेसेर प्रथम और अशुर्नसीरपाल द्वितीय जैसे राजाओं के अधीन, साम्राज्य में उल्लेखनीय वृद्धि हुई |

सैन्य शक्ति: असीरियन अपनी अत्यधिक संगठित और कुशल सैन्य मशीन के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने नवीन सैन्य रणनीति, उन्नत हथियार और घेराबंदी युद्ध तकनीक विकसित की। उनकी सेनाओं में अच्छी तरह से प्रशिक्षित पैदल सेना, घुड़सवार सेना और रथ शामिल थे, जिन्हें कुशल तीरंदाजों और इंजीनियरों का समर्थन प्राप्त था।  

केंद्रीकृत सरकार: असीरियन साम्राज्य में एक मजबूत राजशाही के साथ एक केंद्रीकृत सरकार थी। राजा, जिसके पास पूर्ण शक्ति होती थी, साम्राज्य के राजनीतिक और धार्मिक नेता दोनों के रूप में कार्य करता था। राजा की सत्ता को एक जटिल नौकरशाही का समर्थन प्राप्त था, जो विशाल साम्राज्य में कुशल शासन सुनिश्चित करती थी।  

प्रशासनिक संगठन:  इन्होंने  अपने विशाल साम्राज्य को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए  प्रशासनिक प्रणालियाँ विकसित कीं। उन्होंने प्रांतों का एक नेटवर्क स्थापित किया, प्रत्येक का अपना गवर्नर था जो कर एकत्र करने, कानून और व्यवस्था बनाए रखने और राजा के आदेशों को लागू करने के लिए जिम्मेदार था। साम्राज्य में रिकॉर्ड रखने की एक जटिल प्रणाली थी, जिसमें प्रशासनिक, कानूनी और आर्थिक मामलों का दस्तावेजीकरण करने के लिए मिट्टी की गोलियों का उपयोग किया जाता था।

शहरी नियोजन: इन्होंने बुनियादी ढाँचे और शहरी नियोजन के विकास में भारी निवेश किया। उन्होंने व्यापक सड़क नेटवर्क का निर्माण किया, जिससे पूरे साम्राज्य में व्यापार और संचार में सुधार हुआ।  

सांस्कृतिक उपलब्धियाँ: इन्होंने ने कला, वास्तुकला और साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे कुशल कारीगर और शिल्पकार थे, जो अपनी जटिल नक्काशी और मूर्तियों के लिए जाने जाते थे जो उनके महलों और मंदिरों को सुशोभित करते थे।

लेखन कला : लेखन की एक प्रणाली भी विकसित की जिसे क्यूनिफॉर्म के नाम से जाना जाता है, जिसका उपयोग वे अपने ऐतिहासिक और साहित्यिक कार्यों का रिकॉर्ड रखने के लिए करते थे।

पतन: असीरियन साम्राज्य को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा जो अंततः उसके पतन का कारण बनी। आंतरिक कलह, बाहरी लोगों के विद्रोह और क्षेत्रीय शक्तियों के उदय ने साम्राज्य को कमजोर कर दिया।

निष्कर्ष :-

इसके पतन के बावजूद, असीरियन साम्राज्य का इस क्षेत्र पर स्थायी प्रभाव पड़ा। इसकी सैन्य रणनीति और प्रशासनिक प्रणालियों ने बाद के साम्राज्यों को प्रभावित किया, और इसकी सांस्कृतिक उपलब्धियाँ  बहुत महत्वपूर्ण हैं |


15. युद्धों मे बारूद और आग्नेय अस्त्रों का प्रयोग के इतिहास पर चर्चा कीजिए |

बारूद और आग्नेयास्त्रों का युद्ध के इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा है। बारूदी हथियारों के विकास और व्यापक उपयोग ने युद्ध लड़ने के तरीके में क्रांति ला दी और राष्ट्रों के बीच शक्ति संतुलन को प्रभावित किया। यहां युद्ध में बारूद और आग्नेयास्त्रों के उपयोग का एक सिंहावलोकन दिया गया है:

गनपाउडर का आविष्कार (9वीं शताब्दी): गनपाउडर, जिसे काला पाउडर भी कहा जाता है, का आविष्कार चीन में तांग राजवंश के दौरान हुआ था। प्रारंभ में, इसका उपयोग  मनोरंजक उद्देश्यों के लिए किया जाता था। हालाँकि, इसकी सैन्य क्षमता को पहचान लिया गया और जल्द ही इसका उपयोग युद्ध में भी होने लगा।

फायर लांस (10वीं शताब्दी): पहला आग्नेयास्त्र जैसा हथियार फायर लांस था, जिसे 10वीं शताब्दी के दौरान चीन में विकसित किया गया था। इसमें बारूद और प्रोजेक्टाइल से भरी एक ट्यूब शामिल थी, जो एक फ्यूज द्वारा प्रज्वलित होती थी। फायर लांस का उपयोग मुख्य रूप से नजदीकी दूरी के हथियार के रूप में किया जाता था।

तोपों का परिचय (13वीं शताब्दी): सोंग राजवंश के दौरान चीनियों ने युद्ध में तोपों का उपयोग करना शुरू किया। ये प्रारंभिक तोपें अनिवार्य रूप से बारूद और प्रक्षेप्य से भरी ट्यूब थीं। तोपें शुरू में लकड़ी के तख्ते पर लगाई जाती थीं और मुख्य रूप से घेराबंदी और नौसैनिक युद्ध में उपयोग की जाती थीं।

यूरोपीय द्वारा गनपाउडर को अपनाना (14वीं शताब्दी): गनपाउडर तकनीक मंगोल आक्रमणों और व्यापार मार्गों के माध्यम से यूरोप तक पहुंची।   

हाथ की तोपें (15वीं शताब्दी): हाथ की तोपों और माचिस की कस्तूरी के विकास ने तोपों से पोर्टेबल आग्नेयास्त्रों में संक्रमण को चिह्नित किया।   इन शुरुआती आग्नेयास्त्रों का उपयोग धीमा था लेकिन धीरे-धीरे इसमें सुधार हुआ।

व्हीललॉक और फ्लिंटलॉक तंत्र (16वीं-17वीं शताब्दी): 16वीं शताब्दी में शुरू किए गए व्हीललॉक तंत्र और बाद में 17वीं शताब्दी में फ्लिंटलॉक तंत्र ने माचिस की तीली का स्थान ले लिया। इन तंत्रों ने अधिक विश्वसनीय तेज़ पुनः लोडिंग समय प्रदान किया, जिससे आग्नेयास्त्रों की प्रभावशीलता में काफी सुधार हुआ।

 पैदल सेना (17वीं-18वीं शताब्दी): 17वीं शताब्दी के अंत में सॉकेट संगीन की शुरूआत ने बंदूकधारियों को निकट युद्ध में प्रभावी ढंग से लड़ने मे मदद की | इससे, पैदल सेना की रणनीति और संरचनाओं में सुधार  हुआ |

राइफलिंग और मिनी बॉल (19वीं शताब्दी): राइफलिंग के आविष्कार - बन्दूक बैरल के अंदर खांचे - ने सटीकता और सीमा में सुधार किया। मिनी बॉल की शुरूआत, खोखले आधार के साथ एक शंक्वाकार आकार की गोली, थूथन वेग और सटीकता में वृद्धि, आग्नेयास्त्रों को युद्ध के मैदान पर घातक और अधिक प्रभावी बनाती है।

रिवॉल्वर और रिपीटिंग राइफल्स (19वीं सदी): 19वीं सदी के मध्य में रिवॉल्वर के आविष्कार हुआ   हेनरी राइफल और विनचेस्टर राइफल जैसी दोहराई जाने वाली राइफलें, मैगजीन-फेड तंत्र के साथ तेजी से फायर करने में सक्षम थीं।

मशीन गन और स्वचालित आग्नेयास्त्र (19वीं सदी के अंत से 20वीं सदी की शुरुआत): गैटलिंग गन और मैक्सिम गन जैसी मशीन गन के विकास से मारक क्षमता और दमन क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।   

निष्कर्ष :-

युद्ध में बारूद और आग्नेयास्त्रों का इतिहास सैन्य रणनीति, रणनीतियों और लड़ाई के परिणामों पर उनके परिवर्तनकारी प्रभाव का एक प्रमाण है। बारूद की प्रारंभिक खोज से लेकर आग्नेयास्त्र प्रौद्योगिकी में आधुनिक प्रगति तक, उन्होंने मानव इतिहास की दिशा को आकार दिया है और समकालीन युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं।

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